
मेरे ख़यालों के आसमान पर,
आज फिर तिरंगा लहराया है,
हवा में वो ख़ुशबू है
जो सदियों की क़ुर्बानियों से निकली है।
मिट्टी का हर ज़र्रा
मुझसे कहता है—
“तू मेरा है, तेरे लहू में मेरा रंग है।”
गाँव की पगडंडियों से लेकर
शहर की भीड़ तक,
मैंने इस वतन को
अपनी आँखों में पाला है,
अपने लफ़्ज़ों में सँजोया है।
आज भी जब फ़िज़ा में
‘सारे जहाँ से अच्छा’ गूंजता है,
तो दिल की धड़कनें
ज़रा तेज़ हो जाती हैं—
मानो मैं भी उन क़दमों में खड़ा हूँ
जिन्होंने आज़ादी की राह बनाई।
ये दिन सिर्फ़ जश्न नहीं,
ये दिन वादा है—
कि मेरी साँसों की आख़िरी महक
मेरे वतन को ही मिलेगी।
नज़्म – “मेरा वतन, मेरा वजूद” (लेखक: मज़हर हुसैन ख़ान)